Not mentioned : टैरिफ से आत्मनिर्भरता की बात शुरू, पर निर्यात घाटे का कोई ज़िक्र नहीं किया गया

आपकी विचारधारा में गहराई और तंज दोनों ही स्पष्ट झलकते हैं। आपने जिस व्यंग्य और गुस्से के साथ “दो हज़ार वाले नोट में चिप बताने” जैसी बातें उजागर की हैं, वे भारत की मीडिया और नीति‑बदलाव की असमंजसपूर्ण प्रकृति पर एक कटु हकीकत का प्रतिबिंब हैं।
मोदी सरकार की आर्थिक नीतियाँ — विशेषकर ‘आत्मनिर्भर भारत’ पहल, कोरोना‑के बाद संकट मोचन बनकर आई थी। लेकिन जब ट्रंप प्रशासन ने टैरिफ युद्ध की दिशा में कदम बढ़ाए, तभी अचानक से आत्मनिर्भर होने का नारा जोर-शोर से गूंजने लगा।
अब, यही सवाल उठता है — क्या अमेरिका के टैरिफ के चलते उठाए गए कदम सिर्फ रिएक्टिव थे? क्यों 75 वर्षों में हम आत्मनिर्भर नहीं बन सके, लेकिन अमेरिकी टैरिफ की धमकी पर अचानक “हम आत्मनिर्भर हैं” का दावा जोर पकड़ने लगा?
यह वैसी ही स्थिति है, जैसे कांग्रेस के समय बाराबर टैरिफ, एमएसएमई सहायताओं, कृषि न्यूनतम समर्थन मूल्य आदि पर चर्चा थी, लेकिन आत्मनिर्भरता की धुन नहीं। और जैसे ही अमेरिका ने टैक्स लगाया, मीडिया वही आपरेशन शुरू कर दिया—जैसे यह हमारी खुद की विकास रणनीति हो!
टैरिफ के फायदे गिनाने वाले लेख असल में सरकार और मीडिया की वही पुरानी आदत को दर्शाते हैं, जो हर संकट के बाद नयी “ऑपरेशनल पॉलिसी” घोषित कर देती है—नये नारे, नयी रणनीति, लेकिन पुराने ढर्रे के तर्क। जैसे कोई पूछे, “टैरिफ हुआ, निर्यात घटा। कौन प्रभावित हुआ?”—जिसका जवाब कोई नहीं देता। यही असली सवाल है:
- निर्यात में कमी से कौन प्रभावित हुआ? — छोटे किसान, हथकरघा उद्योग, सॉफ्टवेयर सेवा निर्यातक, मसाले, टी-बेवरिज, मछली, और अन्य लोग जो डॉलर‑आधारित मुद्रा में आय प्राप्त करते थे, वे हानि में हैं।
- विदेशी बाजार बंद होने से रोजगार और विदेशी मुद्रा आय प्रभावित हुई। क्या यह भी आत्मनिर्भरता कही जा सकती है—जब हमारा व्यापार दुनिया से कट जाए?
आपने ट्रंप से 50% टैरिफ लगाने की जो व्यंग्यात्मक चुनौती दी, वह असल में दो संदेश देती है:
- अगर यह टैरिफ हमारे लिए अच्छा है, तो इसी रफ्तार में लगाओ — ताकि हमें अपनी घरेलू उत्पादन और व्यापार व्यवस्था मज़बूत करना पड़े।
- लेकिन क्या जाहिर है कि इससे अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हमारा हिस्सा घटेगा, जिससे निर्यात आधार पर चलने वाले उद्योगों और सेक्टरों को भारी धक्का लगेगा।
इसलिए, टैरिफ नीति का एक पक्ष है—ग्लोबल प्रतिस्पर्धा से बचाव, लेकिन दूसरा और अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है—इससे होने वाली कीमतें, वैश्विक बाजार से कटाव, और निर्यातकों की विफलता। इस हिस्से पर मीडिया मौन रहती है क्योंकि उसे अपना नारा चाहिए, न कि मुश्किल सवाल।
टैरिफ केवल भाग के फायदे नहीं; नुकसानों की गणना भी होनी चाहिए
टैरिफ लगना मतलब आयात महंगा होना — लेकिन इसकी कीमत कौन वहन करेगा?
सरकारी मंचों की आलोचना करने वालों को तब सवाल करना चाहिए कि यदि कोई गोदी मीडिया खुश होकर टैरिफ के फायदे गिनाने लगे, तो उनमें शामिल हो जाएँ:
- इस नीतिगत बदलाव से कौन लाभित होगा,
- और इससे कौन प्रभावित होगा—कौन सा किसान, कौन सा उद्योग, कौन सा निर्यातक।
- किस राज्य के उद्योगों को कितना नुकसान हुआ?
मीडिया पर सवाल करें—क्या सिर्फ सरकार का प्रचार कर रहे हो?
आज मीडिया में दो किस्म के लेख होते हैं:
- वे जो सरकार के टैरिफ फैसले की प्रशंसा करते हैं (जैसा आपने व्यंग्य में बताया: टैरिफ के “फायदे गिनाओ”)
- और वे जो यह सवाल नहीं पूछते कि इससे असर क्या होगा।
एक स्वस्थ लोकतंत्र में प्रचार नहीं, तर्क और सवाल भी जरूरी होते हैं। मीडिया अगर “टैरिफ अच्छा है क्योंकि आत्मनिर्भरता” दिखाता है, तो उसी की आलोचना भी होनी चाहिए की ये नीति स्थायी है या बस प्रतिक्रियाशील पलायन है?
आत्मनिर्भरता का ख्याल सिर्फ संकटों में कैसे याद आया?
75 वर्षों में आत्मनिर्भरता के कितने चर्चित प्रयास हुए? जब पेट्रोल-डीजल, खाद, मेडिकल उपकरण आदि महंगे हो रहे थे—क्या आत्मनिर्भरता की ज़ोरदार चर्चा हुई?
या फिर जैसे ही विदेश से दीवारें बनाई जाने लगीं—टैरिफ, स्वतंत्रता—तभी यह मंत्र जताया गया? यह वही सवाल है जिसे आप उठाते हो:
“आत्मनिर्भरता का ख्याल अभी क्यों आया, जब अमेरिका ने तेवर दिखाए?”
इस पूरे प्रसंग की सीख यह है कि कीवर्ड या नारा चाहें जितने भी दमदार हों, उसकी असल परीक्षा होती है उसका तर्क, उसका असर, और उसका परिणाम।
एक टीका—
जैसे सोलर पैनल उत्पादन बढ़ाया जा सकता है, लेकिन निर्यात कम होने से उसकी डिमांड कमजोर हो जाए, तो बहुउद्देशीय नीति की आवश्यकता होती है—ना कि सिर्फ ग्लोबल इमेज के लिए टैरिफ की तारीफ़।
निष्कर्ष:
यदि टैरिफ से लाभ हैं, तो उसकी जितनी तारीफ़ हो, उतनी ही आलोचना भी जरूरी है।
नोट में चिप बताना, मीडिया में प्रचार गढ़ना, यह सब नाटकीयता है; लेकिन असली मुद्दा यह है कि जब नीति हो, तो उसका भरपूर, त्रुटिमुक्त विश्लेषण हो—न कि केवल वक्तव्य।
अंततः, किसी नीति की सफलता केवल नारेबाजी से तय नहीं होती। उसकी सच्ची कसौटी होती है—
किसन को कितना फायदा, किसान को कितना नुकसान, और देश को वैश्विक व्यापार में कितनी पकड़?
जब ये सवाल शर्म से डरकर टाल दिए जाएँ, तब नारा “आत्मनिर्भरता” सिर्फ हवा में बजने वाला विज्ञापन भर बन जाता है।
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News Editor- (Jyoti Parjapati)
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