Bihar Elections 2025 : बिहार चुनाव 2025 अररिया जिले में पॉलिटिकल तूफ़ान पंडित अजय झा, पत्नी संजू झा और भाजपा

बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के मद्देनज़र अररिया जिला राजनीति में एक सियासी ड्रामा चरम पर पहुँच गया है। भाजपा के पूर्व संभावित दावेदार एवं पार्टी के प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य पंडित अजय कुमार झा को इस बार टिकट नहीं मिलने से विवाद की एक नई कहानी जन्म ले रही है। नाराज़गी की लहरें इस कदर तूल पकड़ चुकी हैं कि उनकी पत्नी संजू झा ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ऐलान किया है कि वह अपने पति के सम्मान की रक्षा के लिए नरपतगंज विधान सभा क्षेत्र से निर्दलीय रूप से चुनाव लड़ेंगी। इस घटनाक्रम ने न सिर्फ भाजपा की अंदरूनी गुटबाज़ी को उजागर किया है, बल्कि जातिगत समीकरण, टिकट बंटवारे की रणनीति और ब्राह्मण समाज की भूमिका पर भी कई राजनीतिक सवाल खड़े कर दिए हैं।
प्रेस कॉन्फ्रेंस में संजू झा ने ठोस शब्दों में कहा कि भाजपा में शायद ब्राह्मणों के लिए स्थान काफी कम हो गया है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया कि उनके पति पंडित अजय झा ने वर्षों तक पार्टी की सेवा की है, समर्पण किया है, लेकिन शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें निराश किया है। उनका कहना है कि जब उनसे वादा किया गया कि उन्हें टिकट मिलेगा, तब उन्होंने सब तैयारी उसी अनुरूप कर ली थी — लेकिन उस वादे को आज तक पूरा नहीं किया गया।
विवाद का केंद्र इस बात पर है कि नरपतगंज विधानसभा सीट को यादव जाति के वोट बैंक की सीट माना जाता है। वहीं, फारबिसगंज को “बनिया सीट” के रूप में देखा जा रहा है। ऐसे राजनीतिक व सामाजिक परिदृश्यों में ब्राह्मण समुदाय की स्वीकार्यता और उसका स्थान किस प्रकार सुनिश्चित हो, यह आज एक बड़ी चुनौति बनकर सामने है। यदि यादवों को नरपतगंज और बनियों को फारबिसगंज दिया जाए, तो ब्राह्मण किस सीट पर जाए? संजू झा ने इसी उलझन को आधार मानते हुए कहा कि जब ब्राह्मणों को सीट नहीं दी जाती, तो उनसे उम्मीद करना अन्याय होगा।
पंजिकाओं के अनुसार, अररिया जिले की छह सीटों में से नरपतगंज, सिक्टी, फारबिसगंज जैसी सीटों पर भाजपा मजबूत पकड़ बनाए रखना चाहती है। लेकिन अजय झा ने नाराजगी जाहिर करते हुए कहा है कि उन्हें पिछले कई दिनों से नरपतगंज से ही टिकट दिया जाना चाहिये था। शुरुआत में पार्टी की ओर से उनसे कहा गया कि नरपतगंज से चुनाव लड़ो। बाद में कहा गया कि फारबिसगंज से दिया जाएगा, फिर जोकीहाट से — किन्तु अंततः उन्हें टिकट नहीं मिला। इस असमंजस और धोखे से वे बेहद दुखी और हताश हैं।

प्रेस कॉन्फ्रेंस में यह भी कहा गया कि यदि अजय झा निर्वाचन लड़ने में सक्षम नहीं हों, तो उनकी पत्नी संजू झा ही उस सीट से चुनाव मैदान में उतरेंगी। उनका तर्क था कि उनका निवास उसी विधानसभा क्षेत्र में है और जनता उन्हें जानती है। उन्होंने खुद अपनी भूमिका निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में स्वीकार कर ली। इससे यह स्पष्ट होता है कि उनके लिए यह विपक्ष या विरोध नहीं, बल्कि अपने सम्मान की लड़ाई है।
यह मामला सिर्फ व्यक्तिगत नाराजगी का नहीं है, बल्कि पार्टी स्तर पर बड़ी चुनौतियों का संकेत देता है। भाजपा को यह देखना होगा कि टिकट बंटवारे की रणनीति किस प्रकार जाति-संतुलन, समीकरण और पार्टी समर्थन को बनाए रख सकती है। यदि एक ऐसे सदस्य को, जिसने पार्टी के लिए वर्षों तक काम किया हो, टिकट नहीं मिलता, तो यह आगे भी अन्य नेता तथा सामाजिक समूहों को निराश कर सकता है।
मुख्य बिंदु यह है कि भाजपा के अंदर उम्मीदवार चयन की प्रक्रिया अक्सर विवादित रही है — विशेष रूप से उन जिलों में जहां जाति समीकरण व समर्थन ढाँचे जटिल हों। इस मामले में, स्थानीय स्तर पर कार्यकर्ताओं, समाजवादी दबाव समूहों और जातिगत समीकरणों की मांगों को संतुलित करना भाजपा नेतृत्व के लिए एक परीक्षा बन गया है।
इस घटना के सार्वजनिक होते ही मीडिया और राजनीतिक वाद-विवाद तेज हो गया है। विपक्षी दल इस अवसर को पकड़ने को आतुर हैं — वे इस मुद्दे को “भ्रष्टाचार, वादे खंडन” और भाजपा में जातिगत भेदभाव का प्रतीक बताकर प्रचारित कर सकते हैं। भाजपा के लिए यह आवश्यक हो गया है कि वे पूर्व नेताओं और कार्यकर्ताओं को प्रोत्साहित करें, उन्हें महत्व दें, और टिकट देने की व्यवस्था में पारदर्शिता व न्याय सुनिश्चित करें।
इस पूरे मामले का एक अन्य आयाम यह है कि राजनीति अब सिर्फ दलों में बंटाव का मामला नहीं है — अब यह व्यक्तिगत सम्मान, स्थानीय प्रतिष्ठा और एक क्षेत्रीय पहचान की लड़ाई बन गई है। अजय झा का यह संघर्ष, उनकी पत्नी के मैदान में उतरने का निर्णय, भाजपा को भी पुनर्विचार करने पर मजबूर कर देता है — कि यदि दल स्वयं अपने समर्थकों को ठगा जाये, तो जनता निराशा की ओर कैसे न झुके।
समापनतः, अररिया जिले में यह राजनीतिक संकट, टिकट बंटवारे और जातिगत समीकरणों के बीच फंसी एक संवेदनशील लड़ाई है। यदि भाजपा समय रहते संतुलित रुख नहीं अपनाती और ऐसे नेताओं की नाराज़गी की वजहों को अनसुना कर देती है, तो इसका प्रतिकूल असर स्थानीय समर्थन, नेता-कार्यकर्ता एकता और चुनावी परिणाम पर भी दिखेगा।
यह मामला केवल अररिया का नहीं, बल्कि उन तमाम जिलों का दर्पण है जहाँ नेताओं की सेवा, सामुदायिक पहचान और पार्टी वादा-निष्ठा के बीच की दूरी खाई बन चुकी है। आने वाला समय तय करेगा कि भाजपा इस चुनौती से कैसे निपटती है — क्या वे निर्दलीय संघर्षों और नाराज़ नेताओं की राजनीतिक आवाज को दबाने का प्रयास करेंगे, या फिर संयम, समझौता और सम्मान के साथ राजनीति को नए सिरे से पुनर्गठित करेंगी।
News Editor- (Jyoti Parjapati)
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