Acquitted by court : 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी कोर्ट से बरी ?

Acquitted by court : 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी कोर्ट से बरी

Acquitted by court : 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी कोर्ट से बरी ?
Acquitted by court : 2008 मालेगांव ब्लास्ट केस में सबूतों के अभाव में सभी आरोपी कोर्ट से बरी ?

2008 के मालेगांव विस्फोट मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) की विशेष अदालत ने एक ऐतिहासिक और बहुप्रतीक्षित फैसला सुनाते हुए साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित समेत सभी आरोपियों को दोषमुक्त करार दिया है। इस फैसले ने न केवल इस केस से जुड़े कानूनी पहलुओं को बल्कि देश में आतंकवाद और राजनीति के आपसी संबंधों को लेकर वर्षों से चल रही बहस को भी एक नया मोड़ दे दिया है। अदालत ने अपने निर्णय में स्पष्ट किया कि अभियोजन पक्ष आरोपियों के खिलाफ आरोप सिद्ध करने के लिए पर्याप्त साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहा, इसलिए सभी को संदेह का लाभ देते हुए बरी किया जा रहा है।

29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के मालेगांव शहर में एक भीड़भाड़ वाले क्षेत्र में एक मस्जिद के पास खड़ी बाइक में बम विस्फोट हुआ था, जिसमें 6 लोगों की दर्दनाक मौत हो गई थी और दर्जनों लोग गंभीर रूप से घायल हुए थे। यह धमाका उस समय हुआ जब लोग रोज़े की नमाज़ पढ़कर बाहर निकल रहे थे। शुरुआती जांच में विस्फोट के पीछे एक साजिश का अंदेशा जताया गया और कुछ ही समय में यह मामला राजनीतिक और सांप्रदायिक दृष्टिकोण से अत्यधिक संवेदनशील बन गया।

इस मामले में जांच एजेंसियों ने जिन लोगों को आरोपी बनाया, उनमें कई ऐसे नाम शामिल थे जो पहली बार किसी आतंकवादी मामले में जुड़े हुए थे। इनमें साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर, जो वर्तमान में भोपाल से भारतीय जनता पार्टी की सांसद हैं, और सेना के अधिकारी लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित के नाम प्रमुख रूप से सामने आए। इनके अलावा भी कई अन्य लोगों को आरोपी बनाया गया। इन सभी पर भारतीय दंड संहिता की हत्या, आपराधिक साजिश, सांप्रदायिक विद्वेष फैलाने जैसी धाराओं के अलावा गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम (UAPA) और आर्म्स एक्ट के तहत भी आरोप लगाए गए थे।

जांच की शुरुआत महाराष्ट्र एटीएस ने की थी और बाद में 2011 में यह मामला एनआईए को सौंप दिया गया। एनआईए ने अपनी जांच में कई बिंदुओं को नए सिरे से देखा, लेकिन अभियोजन के लिए जो साक्ष्य जुटाए गए, वे अदालत में टिक नहीं पाए। न्यायालय ने कहा कि केस में पेश किए गए गवाहों के बयान विरोधाभासी थे और जिन वैज्ञानिक साक्ष्यों पर अभियोजन ने भरोसा किया, वे भी संदेह से परे नहीं थे। अदालत ने विशेष रूप से यह उल्लेख किया कि आरोपियों को दोषी ठहराने के लिए “बियॉन्ड रीजनेबल डाउट” यानी पूर्ण निःसंदेह प्रमाण की आवश्यकता होती है, जो कि इस मामले में उपलब्ध नहीं हो सका।

फैसले के बाद देशभर में अलग-अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिल रही हैं। जहां एक ओर आरोपियों और उनके समर्थकों ने इसे न्याय की जीत बताया, वहीं पीड़ित परिवारों और कुछ सामाजिक संगठनों ने इस पर गहरा असंतोष जताया है। पीड़ितों के परिजनों का कहना है कि उन्हें न्याय नहीं मिला और वे अब उच्च न्यायालय में इस फैसले को चुनौती देने की योजना बना रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, राजनीतिक हलकों में भी इस पर तीखी प्रतिक्रिया देखने को मिली है। कुछ विपक्षी दलों ने इसे न्यायपालिका की विफलता करार दिया है, जबकि सत्ताधारी दल के नेताओं ने इसे “राजनीतिक बदले की भावना से दर्ज केस” का अंत बताया है।

मालेगांव ब्लास्ट केस पिछले डेढ़ दशक से भारतीय राजनीति, न्याय व्यवस्था और मीडिया में बहस का विषय बना रहा। इस केस के जरिए ‘हिंदू आतंकवाद’ शब्दावली का जन्म हुआ था, जो बाद में एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बन गया। कई लोगों ने यह भी तर्क दिया कि इस केस में आरोपी बनाए गए लोगों के साथ राजनीतिक भेदभाव किया गया और उन्हें बिना ठोस सबूतों के वर्षों तक जेल में रखा गया। साध्वी प्रज्ञा ठाकुर ने अपने ऊपर हुए अत्याचारों की लगातार शिकायत की, वहीं लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित ने कहा कि उन्हें साजिश के तहत फंसाया गया। दोनों ने लंबी कानूनी लड़ाई लड़ी और अंततः अब उन्हें बरी कर दिया गया।

यह फैसला भारतीय न्याय प्रणाली की उस बारीकी को उजागर करता है जिसमें केवल संदेह या राजनीतिक दबाव के आधार पर किसी को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। हालांकि, यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि न्याय केवल तकनीकी आधारों पर न हो, बल्कि पीड़ितों के प्रति संवेदनशीलता और पारदर्शिता भी बनी रहे। इस केस में जो लोग मारे गए और जो परिवार तबाह हुए, उनके लिए यह फैसला निश्चित ही निराशाजनक होगा। लेकिन न्यायालयों का कार्य सबूतों के आधार पर निर्णय देना होता है, न कि भावनाओं के आधार पर।

अब यह देखना होगा कि क्या सरकार या पीड़ित पक्ष इस फैसले को चुनौती देकर ऊपरी अदालतों में अपील करता है या नहीं। यदि ऐसा होता है, तो यह मामला एक बार फिर कानूनी बहस और जनचर्चा का विषय बन सकता है। लेकिन फिलहाल, एनआईए कोर्ट का यह निर्णय मालेगांव विस्फोट केस का एक निर्णायक मोड़ है, जिसने वर्षों पुराने एक गंभीर और विवादास्पद मामले पर कानून की दृष्टि से विराम लगा दिया है।

 

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News Editor- (Jyoti Parjapati)

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