Bhopal Gas Tragedy : भोपाल गैस त्रासदी: 41 साल बाद भी पीड़ित झेल रहे हैं अदृश्य जहर का असर

21वीं सदी की दुनिया एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है, जहां जलवायु परिवर्तन, विषैली हवा और पर्यावरणीय असुरक्षाएं सिर्फ वैज्ञानिक चेतावनियां नहीं रहीं, बल्कि मानवीय अस्तित्व को छूती हुई कठोर वास्तविकताएं बन गई हैं। वैश्विक आपदाओं चाहे वे बाढ़ हों, तूफान हों, हीटवेव हों या औद्योगिक दुर्घटनाएं इन सबमें महिलाओं की संवेदनशीलता सबसे अधिक सामने आती है। वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर क्लाइमेट चेंज’ के एक अध्ययन में बताया गया कि दुनिया भर में जलवायु आपदाओं के दौरान महिलाओं की मृत्यु दर पुरुषों की तुलना में चौदह गुना अधिक दर्ज की गई है। यह सिर्फ आंकड़ा नहीं, बल्कि पर्यावरणीय विषमता और लैंगिक असमानता का एक तीखा प्रमाण है।
यही वैश्विक संदर्भ हर वर्ष दिसंबर की शुरुआत में हमें एक गहरी स्थानीय सच्चाई की याद दिलाता है भोपाल गैस त्रासदी। 2–3 दिसंबर 1984 की वह रात केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के औद्योगिक इतिहास का सबसे भयावह अध्याय थी। यूनियन कार्बाइड के कीटनाशक संयंत्र से रिसी मिथाइल आइसोसायनेट (एमआईसी) गैस ने हजारों लोगों की जान ले ली, लाखों को स्थायी बीमारी की तरफ धकेल दिया और यह साबित कर दिया कि जब विकास की दिशा में निगरानी, सुरक्षा और मानवीय सरोकार कमजोर पड़ जाते हैं, तो सबसे बड़ी मार आम लोगों पर और सबसे अधिक महिलाओं पर पड़ती है।
भारत भी आज उन देशों की सूची में शामिल है जो जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के दोहरे संकट को सबसे गहराई से झेल रहे हैं। देश में वायु प्रदूषण से हर साल लगभग 17 लाख लोगों की समयपूर्व मौत होने का अनुमान है। शहरी क्षेत्रों में महीनों तक हवा ‘बहुत खराब’ या ‘गंभीर’ श्रेणी में बनी रहती है, और इसका सबसे बड़ा असर उन महिलाओं पर पड़ता है जो घर और काम दोनों के बीच अनेक भूमिकाएं निभाती हैं। वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में महिलाओं का बड़ा हिस्सा अब भी बायोमास ईंधन के काले धुएं में घंटों गुजारता है, जिससे फेफड़ों, आँखों और हृदय की बीमारियां तेजी से बढ़ती हैं। इस दैनिक जोखिम में भी वही पैटर्न दिखता है जो भोपाल की रात में उभरा था कि संकट के समय महिलाएं अपने परिवार को बचाने में स्वयं को सबसे अंत में रखती हैं, और सामना उन्हें ही सबसे अधिक करना पड़ता है।
भोपाल गैस त्रासदी के लगभग चार दशक बाद भी प्रभावित समुदाय, विशेषकर महिलाएं, इसके दीर्घकालिक दुष्प्रभावों से जूझ रही हैं। आधिकारिक रिकॉर्ड में तत्काल मृतकों की संख्या 3,787 दर्ज की गई, जबकि स्वतंत्र आकलनों में यह संख्या दस से पंद्रह हजार के बीच मानी गई। सरकारी दस्तावेज़ों के अनुसार, पांच लाख अठावन हजार से अधिक लोग इस दुर्घटना से किसी न किसी रूप में क्षतिग्रस्त हुए, इनमें 38,478 लोग आंशिक रूप से और लगभग 3,900 लोग स्थायी रूप से विकलांग हुए। लेकिन आँकड़ों के पीछे छुपी वास्तविकता इससे कहीं अधिक गहरी और कई आयामों वाली है।

महिलाओं ने इस त्रासदी का बोझ सबसे लंबी अवधि तक ढोया है। गैस के सीधे संपर्क में आने वाली महिलाओं में वर्षों तक गंभीर श्वसन रोग, फेफड़ों की क्षमता में कमी, आँखों की जलन, दृष्टि क्षय, त्वचा संबंधी संक्रमण और लगातार बनी रहने वाली शारीरिक थकान देखने को मिली। आईसीएमआर और अन्य शोध संस्थानों के अनुसार, गैस के रासायनिक प्रभावों के कारण महिलाओं में हार्मोनल असंतुलन, गर्भाशय संबंधी बीमारियां और अस्थायी या स्थायी प्रजनन जटिलताएं आम हो गईं। गर्भवती महिलाओं पर इसका प्रभाव और भी घातक रहा उनमें गर्भपात की दर बढ़ी, समयपूर्व प्रसव के मामलों में वृद्धि हुई, मृत्यु के साथ जन्में शिशुओं और जन्मजात विकृतियों की घटनाएं लगातार रिपोर्ट होती रहीं।
जो लड़कियां इस त्रासदी के समय बहुत छोटी थीं या बाद में प्रभावित क्षेत्रों में पैदा हुईं, उनमें भी अनेक दीर्घकालिक प्रभाव देखे गए अस्थमा, एनीमिया, प्रतिरक्षा प्रणाली की कमजोरी, बार-बार होने वाले संक्रमण, त्वचा रोग और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी चुनौतियां। कई वैज्ञानिक अध्ययनों ने यह भी बताया है कि गैस के संपर्क में आए गर्भों में मौजूद बच्चों में शारीरिक विकास, संज्ञानात्मक क्षमताओं और शिक्षा-रोजगार संबंधी संभावनाओं पर भी नकारात्मक असर पड़ा। यह एक ऐसी चोट थी, जिसकी प्रतिध्वनि अगली पीढ़ियों तक जाती रही।
इस त्रासदी की सबसे पीड़ादायक विरासत यह है कि प्रभावित बस्तियों में रह रहीं महिलाएं आज भी दूषित भूमि और भूजल के संपर्क से मुक्त नहीं हो सकीं। फैक्ट्री परिसर और आसपास की मिट्टी में मौजूद रसायनों ने भूजल को प्रभावित किया, और सालों-साल से यह पानी उन बस्तियों में इस्तेमाल होता रहा जहां महिलाएं ही सबसे पहले पानी भरने, खाना बनाने, साफ-सफाई और बच्चों की देखभाल में इसका इस्तेमाल करती हैं। परिणामस्वरूप उनमें त्वचा रोग, गैस्ट्रिक समस्याएं, हड्डियों की कमजोरी और अनेक अन्य दीर्घकालिक बीमारियां ज्यादा पाई गईं। सामाजिक-आर्थिक बदहाली ने उनके मानसिक स्वास्थ्य पर और भी गहरा असर डाला चिंता, अवसाद, सामाजिक अलगाव और ट्रॉमा की स्थिति बहुत सामान्य रूप से दर्ज की गई।
भोपाल की पीड़ित महिलाएं अक्सर कहती हैं कि यह त्रासदी एक रात की नहीं थी; यह एक धीमा जहर है जो चालीस वर्षों से उनकी जिंदगी में बह रहा है। यह बयान उस सामूहिक दर्द और उपेक्षा का प्रतीक है, जिसे देश की औद्योगिक नीतियों, पर्यावरणीय निगरानी और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों ने अब तक पर्याप्त रूप से संबोधित नहीं किया है।
भोपाल गैस कांड की बरसी यह अनिवार्य सवाल उठाती है क्या हमने इस त्रासदी से कुछ सीखा? यदि सचमुच सबक लिये गए होते, तो आज हमारे शहरों की हवा इतनी विषैली न होती, नदियों में औद्योगिक कचरा इतनी सहजता से न बहाया जाता, ग्रामीण महिलाओं को जल संकट के बीच घंटों भटकने की आवश्यकता न पड़ती और हमारे देश की जलवायु नीतियां अभी भी फाइलों और घोषणाओं से आगे बढ़ चुकी होतीं। उद्योगों की सुरक्षा प्रणाली, प्रदूषण नियंत्रण तंत्र, आपदा प्रबंधन ढांचा और पुनर्वास नीतियां आज भी आधी आबादी की जरूरतों और संवेदनशीलताओं को केन्द्र में रखने में असफल साबित हो रही हैं।
भोपाल ने दुनिया को यह कठोर पाठ पढ़ाया था कि संवेदनहीन विकास विनाशकारी हो सकता है। आज की जलवायु आपदाएं, प्रदूषित हवा, जल संकट और विषैले औद्योगिक विस्तार उसी पाठ का नया अध्याय लिख रहे हैं। इसलिए यह समय केवल स्मरण का नहीं, बल्कि चेतावनी का भी है कि जब तक पर्यावरणीय नीतियों, जलवायु योजनाओं और पुनर्वास प्रक्रियाओं में महिलाओं को केन्द्र में नहीं रखा जाएगा, तब तक न तो जनस्वास्थ्य सुरक्षित हो सकेगा, न औद्योगिक विकास टिकाऊ होगा और न ही भविष्य की पीढ़ियां इस धीमे जहर से मुक्त हो पाएंगी। ]]]
कुमार सिद्धार्थ, पिछले चार दशक से पत्रकारिता और सामाजिक विकास के क्षेत्र में सक्रिय है। आप शिक्षा, पर्यावरण, सामाजिक आयामों पर देशभर के विभिन्न अखबारों में लिखते रहते हैं।
News Editor- (Jyoti Parjapati)
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