Gurjar : अखिलेश यादव की सोच महिला विरोधी, सपा ने पूजा पाल को निष्कासित कर किया अपमान गुर्जर ?

Gurjar : अखिलेश यादव की सोच महिला विरोधी, सपा ने पूजा पाल को निष्कासित कर किया अपमान गुर्जर

Gurjar : अखिलेश यादव की सोच महिला विरोधी, सपा ने पूजा पाल को निष्कासित कर किया अपमान गुर्जर ?
Gurjar : अखिलेश यादव की सोच महिला विरोधी, सपा ने पूजा पाल को निष्कासित कर किया अपमान गुर्जर ?

समाजवादी पार्टी (सपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बीच राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में जब किसी नेता पर पार्टी से निष्कासन जैसी कार्रवाई होती है, तब यह सवाल उठता है कि उस निर्णय के पीछे निहित विचारधारा या राजनीतिक दुश्मनी का क्या योगदान है। हाल ही में सपा विधायक पूजा पाल के खिलाफ पार्टी ने जो चलती कार्रवाई की, उस पर भाजपा विधायक नंदकिशोर गुर्जर का तीखा हमला, न केवल एक राजनीतिक बहस को जन्म दे रहा है, बल्कि यह सवाल भी खड़ा करता है कि राजनीतिक दलों में महिला सम्मान और संवेदनशीलता की क्या जगह है। उन्होंने भाजपा-तटस्थ अंदाज में इस मामले को उठाते हुए सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव की नैतिकता और विचारधारा पर गहरी टिप्पणियाँ की हैं।

भाजपा विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने कहा कि “जो व्यक्ति अपनी पत्नी के सम्मान के लिए लड़ाई नहीं लड़ सकता, वह दूसरी महिलाओं के सम्मान की रक्षा क्या करेगा?” यह कथन दो अंतर्निहित मुद्दों पर प्रकाश डालता है—पहली, राजनीतिक नेतृत्व की निजी एवं सार्वजनिक भूमिका में नैतिकता; दूसरी, महिला सम्मान का राजनीतिक विमर्श में उपयोग। उनका तर्क सपा नेतृत्व के प्रति एक सीधे-सीधे चुनौती की तरह काम करता है, जो यह प्रश्न करता है कि क्या नेता व्यक्तिगत जीवन में बनी असुरक्षा को सार्वजनिक मुद्दों में ऊँचा करके मुद्दों को दबा नहीं रहे?

गुर्जर ने आगे आरोप लगाया कि पूजा पाल, विधायक होने के नाते, अपराधों के विरोध में मुखर थीं, और यही उन्हें पार्टी से निष्कासित करने का कारण बना था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि सपा में आलोचना की गुंजाइश नहीं है। उन्होंने इसे ‘जिहादी मानसिकता’ की कार्रवाई करार दिया—एक ऐसी मानसिकता जो बहस को सहने के बजाय उसे दबाना चाहती है। हालांकि यह वाक्य राजनीतिक रूप से विवादों का स्रोत बन सकता है, परंतु उनके बयानों की केंद्र में एक बात स्पष्ट है: वे मानते हैं कि विधायक पूजा पाल ने महिला सम्मान की आवाज उठाई, लेकिन पार्टी नेतृत्व ने उस आवाज को प्रतिबंधित कर, महिला सम्मान का मज़ाक उड़ाया।

उनके विवरण में यह तथ्य भी उजागर होता है कि महिला राजनीति और नेतृत्व में संघर्ष को अक्सर व्यक्तिगत पहचान से जोड़ा जाता है। वह मानते हैं कि जो नेता अपनी निजी जीवन की रक्षा करने में पीछे रहे, वे दूसरों के सम्मान की रक्षा कैसे कर सकते हैं? यह विचार न केवल निजी दोष और सार्वजनिक जिम्मेदारी के बीच संबंध को चुनौती देता है, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व की नैतिक दीक्षा का पैमाना भी खड़ा करता है – क्या नेता अपने व्यक्तिगत जीवन में असुरक्षित हैं, तो वे सार्वजनिक जीवन में कौन सी ‘न्यायप्रियता’ का पाठ पढ़ाएंगे?

विपक्ष और दलगत संघर्ष की राजनीति में यह बयान सावधानीपूर्वक पढ़ा जाना चाहिए—गुर्जर की तर्कशक्ति बस आरोप-प्रत्यारोप नहीं कर रही, बल्कि यह सवाल भी उठा रही है कि वर्तमान राजनीतिक संचालन में नैतिकता कहां अगवाह हो रही है। साथ ही यह बयान इस बात को भी रेखांकित करता है कि राजनीति में अक्सर महिला नेताओं को राजनीति से बाहर करने के लिए निजी या संवेदनशील मुद्दों को हथियार बनाया जाता है, जो एक लंबा चिंतन का विषय है।

इस पूरे घटनाक्रम में एक बात स्पष्ट हो जाती है: चाहे भाजपा हो या सपा, जब आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला चलता है, तब कहीं न कहीं नैतिकता और महिला सम्मान का असली आधार खो जाता है। गुर्जर की टिप्पणी ‘उस व्यक्ति की मानसिकता’ पर आधारित है—यह बयान खुद में एक चुनौती और सवाल है कि राजनीतिक दल चाहे वो ‘समाजवादी’ हों या ‘जनवादी’, अगर वे अपनी महिला नेताओं को उन्नत मंच प्रदान न करें और आलोचना की जगह पर्दा डालें, तो वे वास्तव में महिला सम्मान को कितनी गंभीरता से लेते हैं?

इस घटना से हमें दो प्रमुख निष्कर्ष मिलते हैं:

  1. राजनीतिक दलों में महिला नेताओं की सोच और आवाज को दबाने के कदम अक्सर निजी असहजता, राजनीतिक असंतुष्टता या गुटबाजी का परिणाम होते हैं, और ऐसे में ‘महिला सम्मान’ एक राजनीतिक मुद्दे से, स्थानीय राजनीति का हिस्सा बन जाता है।
  2. नेतृत्व की नैतिकता तब जांच की जाती है जब उसके निजी आचरण और सार्वजनिक दायित्व में अंतर दिखाई दे। पूजा पाल का निष्कासन यह संदेश देता है कि सपा नेतृत्व कि ‘महिला सम्मान’ की जो तस्वीर कैद की गई थी, वह शायद अधिक सतही या राजनीतिक रूप से सीमित थी।

अंततः बीजेपी विधायक नंदकिशोर गुर्जर का बयान, चाहे आप उससे सहमत हों या नहीं, राजनीतिक नैतिकता, महिला प्रतिनिधित्व और दलों की जवाबदेही पर एक गंभीर विमर्श को आम जनता के समक्ष रखता है। यह एक मौके की तरह है—जहां राजनीतिक दलों को यह तय करना है कि वे अपने आचार, अपने निर्णयों और अपने नेताओं के प्रति कितने नैतिक और संवेदनशील हैं।

— एक राजनीतिक विश्लेषक के दृष्टिकोण से यह टिप्पणी राजनीति के गहरे आयामों को उजागर करती है, बताती है कि संवेदनशील मुद्दों पर राजनीति तब तक स्वस्थ नहीं हो सकती, जब तक नैतिकता, जवाबदेही और समानता की मान्यता सभी दलों में एकसमान रूप से न हो।

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News Editor- (Jyoti Parjapati)

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