Pinky choudhary : क्या कानून बराबर है, पिंकी चौधरी जैसे मामलों में चुप्पी, दूसरे पक्ष पर तुरंत कार्रवाई

भारत का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार
- भारत का संविधान हर नागरिक को समानता का अधिकार देता है। लेकिन ज़मीनी हकीकत में यह “समानता” कितनी समान है, यह अब बड़े सवालों के घेरे में है। हाल के वर्षों में कुछ समुदायों या समूहों पर तेज़ और कठोर कार्रवाई देखने को मिली है—जैसे धर्मांतरण के आरोप लगते ही गिरफ्तारी, पूछताछ, और कभी-कभी बिना किसी ठोस सबूत के संपत्ति पर बुलडोज़र चलाना। वहीं दूसरी ओर, कुछ नामचीन या सत्ता के करीब माने जाने वाले व्यक्तियों द्वारा खुलेआम बयानबाज़ी, वीडियो शेयर करना, या धर्म विशेष के खिलाफ उकसाने के बावजूद न तो जांच होती है, न गिरफ्तारी—न ही किसी प्रकार की कानूनी कार्रवाई।
- पिंकी चौधरी जैसे नाम इस संदर्भ में विशेष रूप से सामने आते हैं। उनके ऊपर वर्षों से नफरत फैलाने और भड़काऊ भाषण देने के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन उन पर न कोई गंभीर कार्रवाई हुई, न ही गिरफ्तारी। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक है — क्या वाकई कानून सबके लिए बराबर है?
धर्मांतरण और बुलडोजर का खेल – चयनात्मक न्याय?
- कई घटनाएं हाल ही में सामने आई हैं जिनमें धर्मांतरण के आरोप लगते ही पुलिस और जांच एजेंसियां तुरंत हरकत में आ जाती हैं। न सिर्फ एफआईआर दर्ज होती है, बल्कि बिना आरोप सिद्ध हुए ही गिरफ्तारी भी हो जाती है। कई बार तो अभियुक्तों के घरों को बुलडोजर से ढहा दिया जाता है — यह मानते हुए कि ‘अपराधी’ हैं, भले ही अदालत ने अभी फैसला न सुनाया हो।
उदाहरण:
- उत्तर प्रदेश में हाल के वर्षों में सैकड़ों धर्मांतरण के मामलों में मुस्लिम समुदाय के लोगों को गिरफ्तार किया गया है।
- मध्य प्रदेश में भी धर्मांतरण के आरोपों के बाद मंदिरों के आसपास के इलाकों में छापेमारी की गई।
- झारखंड और छत्तीसगढ़ में भी आदिवासी इलाकों में ईसाई समुदाय के लोगों पर निशाना साधा गया।
- इन मामलों में पुलिस का रवैया बेहद सक्रिय और आक्रामक होता है। लेकिन क्या यही सक्रियता तब दिखाई जाती है जब अन्य पक्ष से जुड़े लोग ऐसा ही या उससे भी अधिक उत्तेजक कार्य करते हैं?
पिंकी चौधरी और ‘भाषा की आज़ादी’ का दोहरा मापदंड
- पिंकी चौधरी, जो स्वयं को “हिंदू रक्षा दल” का प्रमुख बताते हैं, कई बार खुलेआम भड़काऊ बयान दे चुके हैं। उनके भाषणों में हिंसा के खुले संकेत, धर्म विशेष के खिलाफ अपमानजनक टिप्पणियाँ और “घर वापसी” जैसे अभियान शामिल रहे हैं। उन्होंने कई बार वीडियो जारी किए, जिनमें वे खुद धर्मांतरण को लेकर विवादित बातें करते पाए गए हैं।
- लेकिन इन मामलों में न तो पुलिस की सक्रियता देखने को मिलती है, न ही जांच एजेंसियों की तत्परता। सोशल मीडिया पर इन वीडियो को लेकर आलोचना होती है, लेकिन प्रशासनिक स्तर पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं होती। यहाँ तक कि अदालतों में याचिकाएं डालने के बाद भी कार्रवाई धीमी रहती है।
यह दोहरा रवैया यही संकेत देता है कि कानून का उपयोग समान रूप से नहीं, बल्कि चुनिंदा रूप से किया जा रहा है।
क्या यह सिर्फ राजनीति है?
- इस तरह की कार्रवाई और चुप्पी को देख कर यह धारणा बनती है कि कानून और व्यवस्था राजनीतिक प्रभाव में कार्य कर रही है। जिन लोगों का सत्ता से या सत्ताधारी विचारधारा से ताल्लुक है, उनके खिलाफ कार्रवाई या तो होती ही नहीं, या फिर नाम मात्र की होती है। वहीं विरोधी विचारधारा रखने वालों या समाज के हाशिए पर खड़े लोगों के खिलाफ त्वरित और कठोर कदम उठाए जाते हैं।
- यह स्थिति लोकतंत्र के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है — जहां कानून सबके लिए समान होना चाहिए, न कि व्यक्ति, धर्म या राजनीतिक विचारधारा देखकर कार्रवाई तय हो।
धर्मांतरण पर दोहरी नीति
- धर्मांतरण को लेकर आज का माहौल अत्यधिक संवेदनशील बना दिया गया है। अगर किसी मुस्लिम या ईसाई व्यक्ति पर धर्मांतरण का आरोप लगता है, तो उसे सामाजिक रूप से अपराधी घोषित कर दिया जाता है—भले ही वह कानूनी रूप से वैध हो। भारत का संविधान अनुच्छेद 25 के तहत हर व्यक्ति को धर्म मानने, आचरण करने और प्रचार करने का अधिकार देता है।
- लेकिन आज “धर्मांतरण” शब्द को ही अपराध बना दिया गया है—विशेषकर जब आरोपी किसी अल्पसंख्यक समुदाय से आता है।
दूसरी ओर, “घर वापसी” के नाम पर एक धर्म विशेष की ओर करवाया गया परिवर्तन धर्मांतरण नहीं, बल्कि “संस्कृति की रक्षा” के रूप में पेश किया जाता है। यह दोहरा मापदंड संविधान की भावना और लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों के खिलाफ है।
न्यायपालिका की भूमिका
कई बार न्यायपालिका ने इन असमान कार्रवाइयों पर टिप्पणी की है, लेकिन उसका प्रभाव प्रशासन पर सीमित रहा है।
- सुप्रीम कोर्ट ने बुलडोजर कार्रवाई को बिना नोटिस और उचित प्रक्रिया के अवैध करार दिया है।
- कई हाईकोर्ट्स ने धर्मांतरण के मामलों में आरोपियों की गिरफ्तारी पर रोक लगाई है।
इसके बावजूद, ज़मीनी स्तर पर फर्क बहुत कम दिखाई देता है। न्यायिक आदेशों का पालन या तो होता नहीं, या बहुत देर से होता है, जब नुकसान पहले ही हो चुका होता है।
मीडिया की भूमिका – एकतरफा विमर्श को बढ़ावा
- मीडिया का एक बड़ा हिस्सा भी इस “चयनात्मक नैरेटिव” को हवा देने में भूमिका निभा रहा है।
एक समुदाय के किसी भी अपराध की खबरों को “धार्मिक रंग” देकर प्रसारित किया जाता है, वहीं दूसरे समुदाय के लोगों के कार्यों को “राष्ट्रवाद” या “धार्मिक जागरूकता” कहकर महिमामंडित किया जाता है। इससे न केवल समाज में ध्रुवीकरण बढ़ता है, बल्कि न्याय की अवधारणा भी कमजोर होती है।
निष्कर्ष: कानून का डर सबमें हो, न कि चुनिंदा लोगों में
- भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में कानून का डर हर नागरिक में बराबर होना चाहिए। अगर किसी ने गलत किया है, तो चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, या विचारधारा से हो—कानूनी कार्रवाई निष्पक्ष और समान होनी चाहिए।
चयनात्मक कार्रवाई, एकतरफा बुलडोज़र नीति, और कथित अपराधियों के प्रति दयाभाव लोकतंत्र को खोखला करता है। - अगर पिंकी चौधरी जैसे लोगों पर बार-बार शिकायतें आती हैं, तो उन पर भी उसी सख्ती से कार्रवाई होनी चाहिए जैसी दूसरे समुदायों पर होती है। नहीं तो यह “विधि का शासन” नहीं, बल्कि “विचारधारा का शासन” बन जाएगा — और यह किसी भी लोकतंत्र के लिए बेहद खतरनाक रास्ता है।
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News Editor- (Jyoti Parjapati)