Questions arising : क्या कानून सबके लिए बराबर है? उदयपुर समेत हालिया बुलडोजर कार्रवाईयों पर उठते सवाल ?

Questions arising : क्या कानून सबके लिए बराबर है? उदयपुर समेत हालिया बुलडोजर कार्रवाईयों पर उठते सवाल

Questions arising : क्या कानून सबके लिए बराबर है? उदयपुर समेत हालिया बुलडोजर कार्रवाईयों पर उठते सवाल ?
Questions arising : क्या कानून सबके लिए बराबर है? उदयपुर समेत हालिया बुलडोजर कार्रवाईयों पर उठते सवाल ?

“अपराध किसी एक का, सजा पूरे परिवार को?”

  • राजस्थान के उदयपुर से हाल ही में आई एक घटना ने एक बार फिर उस बहस को जन्म दे दिया है, जो पिछले कुछ वर्षों से देश के विभिन्न हिस्सों में चल रही है—बुलडोजर न्याय (Bulldozer Justice) के नाम पर क्या कानून की सीमाएं लांघी जा रही हैं? क्या यह तरीका न्यायिक प्रक्रिया को दरकिनार कर देता है? और सबसे अहम सवाल: क्या कानून सच में सबके लिए बराबर है?

घटना का संक्षेप – एक झगड़ा, एक बुलडोजर, एक बिखरा घर

  • उदयपुर में एक स्कूल में छात्रों के बीच हुए मामूली झगड़े के बाद पुलिस ने कार्रवाई करते हुए एक छात्र के घर को बुलडोजर से गिरा दिया। गौर करने वाली बात यह है कि वह घर उस बच्चे के नाम पर नहीं था। बताया गया कि मकान मां के नाम दर्ज था, और यह पुश्तैनी संपत्ति थी, जिसमें परिवार के अन्य सदस्यों का भी हिस्सा था। झगड़ा मामूली था, लेकिन पुलिस और प्रशासन की प्रतिक्रिया असाधारण और आक्रामक रही। सवाल उठता है कि क्या यह कार्रवाई उचित थी? क्या कोई कानूनी प्रक्रिया अपनाई गई?

क्या यह ‘सामूहिक दंड’ का मामला है?

  • भारतीय संविधान और न्याय प्रणाली में व्यक्तिगत जिम्मेदारी की अवधारणा है। यानी अगर कोई व्यक्ति अपराध करता है, तो उसी को कानून के तहत दंडित किया जाना चाहिए—not the entire family. लेकिन जब बुलडोजर चलाया जाता है, तो वह पूरे घर पर चलता है—वो घर जो अक्सर संयुक्त परिवार का हिस्सा होता है, और जिसमें कई पीढ़ियाँ रहती हैं। ऐसे में जब एक सदस्य के अपराध के चलते पूरे परिवार की छत छीन ली जाती है, तो यह सामूहिक दंड (Collective Punishment) का उदाहरण बन जाता है, जो कि कानूनन और नैतिक रूप से प्रश्नचिन्ह के घेरे में है।

पुलिस का पक्ष – “अपराधी बच्चे हैं, घर मां के नाम है”

  • पुलिस ने बयान दिया कि “अपराध बच्चों ने किया, लेकिन घर उनके नाम पर नहीं है, बल्कि मां के नाम पर है।” इस कथन से एक बहुत बड़ा सवाल खड़ा होता है—तो फिर घर क्यों तोड़ा गया? यदि घर किसी और के नाम है और अपराध किसी नाबालिग ने किया है, तो किस आधार पर संपत्ति को गिराने का निर्णय लिया गया? क्या यह दंडात्मक कार्रवाई थी या प्रशासनिक दायरे से बाहर की गई बदले की कार्रवाई?

क्या कोई न्यायिक आदेश था?

  • कई मामलों में देखा गया है कि प्रशासन बिना अदालत के आदेश के ही संपत्तियों को तोड़ देता है। भारत में किसी भी अतिक्रमण या अवैध निर्माण को हटाने के लिए नियमानुसार नोटिस देना, सुनवाई का अवसर देना और उचित प्रक्रिया अपनाना आवश्यक होता है। उदयपुर की घटना में यह स्पष्ट नहीं है कि क्या ऐसे किसी कानूनी प्रक्रिया का पालन किया गया था या नहीं। अगर नहीं, तो यह सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और अनुच्छेद 21 (जीवन और निजी स्वतंत्रता का अधिकार) का उल्लंघन है।

अन्य राज्यों में भी ऐसे कई उदाहरण

  • यह सिर्फ राजस्थान की बात नहीं है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली जैसे राज्यों में भी ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जहाँ अपराध होने के बाद पुलिस या प्रशासन ने अपराधी के घर को तोड़ दिया—कभी बिना कानूनी प्रक्रिया के, तो कभी नोटिस दिए बिना।
    हाल ही में मध्य प्रदेश के खरगोन और उज्जैन में, दंगे के बाद एक ही समुदाय के घरों को तोड़ा गया। कई बार तो वह घर भी गिरा दिए गए जिनका मालिक घटना के वक्त मौजूद ही नहीं था। इन घटनाओं में भी यही सवाल उठता रहा है—क्या कार्रवाई पक्षपातपूर्ण थी? क्या एक ही समुदाय को निशाना बनाया गया?

कानूनी विशेषज्ञों की राय

  • कानूनी जानकारों का कहना है कि बुलडोजर कार्रवाई यदि किसी न्यायिक आदेश के बिना की जाती है तो वह अवैध है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कई बार कहा है कि कोई भी प्रशासनिक कार्रवाई बिना उचित प्रक्रिया और सुनवाई के नहीं होनी चाहिए। किसी के घर को गिराना एक अंतिम कदम होता है, जो तभी उठाया जा सकता है जब सभी कानूनी विकल्प समाप्त हो चुके हों।

मानवाधिकार की दृष्टि से भी सवाल

  • मानवाधिकार संगठनों का कहना है कि बुलडोजर कार्रवाई एक किस्म की “न्याय के बाहर की सजा” (extrajudicial punishment) है। इससे लोगों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता है। विशेष रूप से गरीब और हाशिए पर खड़े समुदाय इससे सबसे अधिक प्रभावित होते हैं। यह एक प्रकार की सार्वजनिक “प्रदर्शनी सजा” बन जाती है, जिससे केवल भय फैलता है, न कि न्याय सुनिश्चित होता है।

राजनीतिक पहलू भी अहम

  • इन कार्रवाइयों पर राजनीतिक रंग भी चढ़ता रहा है। कई बार देखा गया है कि ऐसी कार्रवाई विशेष समुदाय या समूह के खिलाफ केंद्रित होती हैं, जिससे कानून के समानता के सिद्धांत पर सवाल खड़े होते हैं। जब सत्ता पक्ष की आलोचना होती है, तो आमतौर पर कहा जाता है कि “हम अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई कर रहे हैं”—लेकिन सवाल यही है कि क्या प्रक्रिया निष्पक्ष है?

निष्कर्ष: क्या यह न्याय है या शक्ति प्रदर्शन?

  • उदयपुर की घटना एक चेतावनी है—कि कहीं न्याय के नाम पर प्रशासन दंडात्मक रवैया अपनाकर संविधान की आत्मा को ही ना कुचल दे। अगर किसी नाबालिग के अपराध के लिए पूरे परिवार को बेघर किया जाए, तो वह न तो न्याय है, न कानून की व्याख्या। न्याय प्रणाली का आधार है “कानून का शासन”—ना कि “बुलडोजर का डर”।
  • कानून सबके लिए बराबर है—ये सिर्फ किताबों में न लिखा जाए, बल्कि हर कार्रवाई में दिखना भी चाहिए। अफसोस की बात यही है कि कई मामलों में यह बराबरी सिर्फ एक भ्रम बनकर रह गई है। अब वक्त आ गया है कि अदालतें और नागरिक समाज इस तरह की कार्रवाइयों पर गंभीरता से नजर डालें और संविधान की रक्षा करें, वरना “कानून का राज” कहीं “बुलडोजर का राज” बनकर न रह जाए।

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News Editor- (Jyoti Parjapati)

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