The whole truth : स्वामीनॉमिक्स नेपाल से लेकर फ्रांस तक कितना निर्णायक होगा विद्रोह, इतिहास बयां करता है पूरी सच्चाई

वैश्विक स्तर पर राजनीतिक उथल-पुथल मची हुई है।
- नेपाल में युवाओं ने सभी राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। इंडोनेशिया में विधायकों द्वारा न्यूनतम भत्ता दस गुना अधिक बढ़ाने के प्रस्ताव के बाद विरोध प्रदर्शन जारी है। फ्रांस में लोग राष्ट्रपति मैक्रों के खिलाफ ‘सब कुछ बंद करो’ आंदोलन कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लग रहा है कि सरकार उन्हें भूल गई है। पहले श्रीलंका और बांग्लादेश में छात्रों ने सरकारें गिरा दीं।
- वहीं इस बीच अमेरिका में राष्ट्रपति ट्रंप भी राजनीति के पुराने ढर्रे को बदलने की कोशिश कर रहे हैं। कई जानकार कह रहे हैं कि दुनिया एक बड़े बदलाव के दौर से गुजर रही है। लेकिन शेयर बाजार में खूब तेजी है। उन्हें इस बदलाव से कोई डर नहीं लग रहा है। उन्हें लगता है कि ये सब बस थोड़ी देर का तमाशा है, और जल्द ही सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। इतिहास में ऐसे कई बदलाव”आए जो कभी बदले ही नहीं।
अतीत में हुई कई क्रांतियां
- अतीत में कई बार वैश्विक स्तर पर क्रांतियां, युद्ध और संकट आए और उन्हें दुनिया बदलने वाले दौर बताया गया लेकिन उनमें से कई झूठे वादे साबित हुए। 1848 में यूरोप में भी ऐसा ही हुआ था। उदारवादी, छात्र और मजदूर हर जगह अधिकारों और संविधान की मांग कर रहे थे। राजा डर गए थे। लोगों को लगा कि अब लोकतंत्र का जमाना आ गया है। फ्रांस में सबसे बड़ा विद्रोह हुआ, जिसे विक्टर ह्यूगो ने ‘Les Misérables’ में दिखाया।कार्ल मार्क्स ने कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र लिखा, जिसमें कहा गया, एक भूत यूरोप को सता रहा है – साम्यवाद का भूत। लेकिन साल के अंत तक ज्यादातर विद्रोह कुचल दिए गए, राजा फिर से सत्ता में आ गए और लोगों का सिर्फ सपना ही रह गया।
अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद भी नहीं हुआ कोई खास असर
ऐसे ही एक बदलाव की आहट अमेरिका में गृहयुद्ध (1861-65) के बाद आंकी गई। जिसमें लोगों की गुलामी खत्म हो गई और माना गया कि अब एक सच्चा बहु-नस्लीय लोकतंत्र बनेगा। लेकिन जल्द ही गोरे लोग फिर से सत्ता में आ गए और उन्होंने काले लोगों को वोट देने से रोकने और उन्हें अलग-थलग रखने के लिए कानून बनाए। ये कानून 1965 में खत्म हुए। हालांकि गुलामी का साया आज भी अमेरिका पर है, और काले लोग अभी भी समाज के सबसे निचले स्तर पर हैं।
प्रथम विश्व युद्ध में भीषण नरसंहार हुआ, जिसके बाद दुनिया में पहली बार युद्ध-विरोधी आंदोलन शुरू हुए। ऑक्सफोर्ड यूनियन ने एक प्रस्ताव पारित किया, जिसमें कहा गया, यह सदन किसी भी परिस्थिति में राजा और देश के लिए नहीं लड़ेगा। लेकिन इसके बाद दूसरा विश्व युद्ध हुआ। आज भी यूक्रेन और फिलिस्तीन में युद्ध चल रहे हैं।
तानाशाह फ्रेंको की मौत तक जारी रहा फासीवाद
1930 के दशक में स्पेन का गृहयुद्ध फासीवाद और लोकतंत्र के बीच की लड़ाई जैसा लग रहा था। अर्नेस्ट हेमिंग्वे, जॉर्ज ऑरवेल, आर्थर कोस्टलर और आंद्रे मालरो जैसे विदेशी आदर्शवादी फासीवाद-विरोधी आंदोलन में शामिल हुए। लेकिन कुछ नहीं बदला और फ्रेंको की तानाशाही 1975 में उनकी मृत्यु तक जारी रही।
1968 में दुनिया में अद्भुत विरोध प्रदर्शन हुए, जिनका कोई संबंध या आयोजन करने वाला नहीं था। छात्रों ने पेरिस पर कब्जा कर लिया, और फ्रांसीसी सेना ने राष्ट्रपति के प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने के आदेश को मानने से इनकार कर दिया। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग की हत्या के बाद 110 शहरों में दंगे हुए और अश्वेत शक्ति की अवधारणा सामने आई। चेकोस्लोवाकिया में ‘प्राग स्प्रिंग’ हुआ, क्योंकि एक कम्युनिस्ट देश ने सोवियत संघ के शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया। कई जानकारों ने कहा कि 1968 अन्याय के खिलाफ एक महत्वपूर्ण मोड़ था। लेकिन कुछ समय बाद सब शांत हो गया, आखिरकार कोई खास बदलाव नहीं देखने को मिले। उपभोक्ता पूंजीवाद, नस्लीय भेदभाव और राज्य की शक्ति पहले की तरह ही जारी रही।

शीत युद्ध का अंत वास्तव में एक निर्णायक मोड़ जैसा लग रहा था। फ्रांसिस फुकुयामा ने ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री एंड द लास्ट मैन’ लिखा, जिसका मतलब था कि उदार लोकतंत्र ने तानाशाही के प्रतिद्वंद्वी रूपों पर स्थायी रूप से विजय प्राप्त कर ली है। एक दशक के भीतर, रूस में पुतिन ने नेतृत्व में अधिनायकवाद लौट आया, जबकि कम्युनिस्ट चीन एक महाशक्ति बन गया और वैश्विक अधिपत्य की धमकी दे रहा था।
शेयर बाजार में नहीं कोई खास असर
शेयर बाजार को लगता है कि हम सिर्फ छोटे से उतार-चढ़ाव देख रहे हैं, कोई बड़ा बदलाव नहीं। उन्हें लगता है कि थोड़े उतार-चढ़ाव के बाद सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा। हम क्यों बार-बार छोटी-छोटी बातों को बड़ा बदलाव समझ लेते हैं? क्योंकि ‘बदलाव’ से जिंदगी ज्यादा रोमांचक लगती है।
अफगानिस्तान ने सबसे ज्यादा ‘बदलावों’ का विरोध किया है। 1979 में सोवियत संघ का आक्रमण एक बड़ा बदलाव माना गया। 1992 में कम्युनिस्टों को हटाने वाला गुरिल्ला युद्ध भी एक बदलाव था लेकिन फिर एक क्रूर गृहयुद्ध के बाद तालिबान का शासन आया। इससे ओसामा बिन लादेन को 9/11 का बम धमाका करने में मदद मिली। अपने देश में हुए आतंकी हमले के बाद अमेरिका ने युद्ध की घोषणा की और जल्द ही काबुल में अपनी सरकार स्थापित कर ली। लेकिन वह योजना भी अंततः विफल रही, और तालिबान वापस आ गया।
बदलाव की क्रांति के बाद जिंदा रहते हैं विचार
इतिहास की ओर नजर डाले तो यह बहुत ही उलझा हुए है। बदलाव अक्सर धीरे-धीरे होता है। 1848 की क्रांतियां विफल हो गईं, लेकिन उनके विचार जिंदा रहें और आगे एक बड़ा रूप लिया। USSR और पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का पतन एक बड़ा बदलाव लग रहा था, लेकिन चीन जल्द ही साम्यवाद के एक नए रूप के साथ उठ खड़ा हुआ।
बदलाव के लिए उठाई गई आवाज कभी व्यर्थ नहीं होती है, वह आगे के लिए उम्मीदों के बीच बोते हैं। इतिहास में नजर दौड़ाए तो हम देखेंगे कि कोई भी परिवर्तन एक झटके में नहीं होता है। शायद वॉल स्ट्रीट के व्यापारी सही हैं। वे ट्रंप के क्रांति के प्रयास को एक छोटी सी घटना के रूप में देखते हैं जो ज्यादा कुछ नहीं बदलेगी। मुझे लगता है कि वे सही हो सकते हैं।
News Editor- (Jyoti Parjapati)
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