A contemplation : राष्ट्र हित के युद्ध में न्यूट्रल रहना अधर्म को समर्थन करना है – एक चिंतन ?

A contemplation : राष्ट्र हित के युद्ध में न्यूट्रल रहना अधर्म को समर्थन करना है – एक चिंतन

A contemplation : राष्ट्र हित के युद्ध में न्यूट्रल रहना अधर्म को समर्थन करना है – एक चिंतन ?
A contemplation : राष्ट्र हित के युद्ध में न्यूट्रल रहना अधर्म को समर्थन करना है – एक चिंतन ?

भारतीय पौराणिक कथा में भगवान श्रीकृष्ण

  • ने स्पष्ट शब्दों में शिक्षा दी है कि धर्म-अधर्म के संघर्ष में निष्पक्ष अर्थात् न्यूट्रल रहने वाले व्यक्ति अधर्म का ही साथ देते हैं। इसी संदर्भ में, महाभारत के युद्ध में भीम द्वारा दुर्योधन को कमर के नीचे मारने की घटना पर बलराम की प्रतिक्रिया और श्रीकृष्ण की प्रतिक्रिया बेहद विचारणीय रही। जब भीम ने युद्ध के नियम तोड़ते हुए इस कार्रवाई की, तो बलराम उनसे नाराज हुए और उनकी हत्या करने तक की ठानी। लेकिन श्रीकृष्ण ने बलराम से कहा कि जिनने निरपेक्ष रहना चाहा, उनके पास अब इस युद्ध में बोलने का कोई अधिकार नहीं है; क्योंकि उन्होंने कई अनैतिक और अन्यायपूर्ण घटनाओं पर मौन रहकर अधर्म की प्रवृत्ति के साथ चुप्पी साध रखी—(१) भीम को विष दिया जाना, (२) पांडवों को लाक्षागृह में जलाने का प्रयत्न, (३) द्यूत-क्रीड़ा में धोखा दिया जाना, (४) द्रौपदी का वस्त्रहरण और (५) अभिमन्यु की सब नियम तोड़कर हत्या। इन सभी घटनाओं पर मौन रहने वाले सत्यकथ्य के पक्ष में खड़े नहीं हो सकते।
  • आज जब हम अपने देश की स्थिति देखते हैं, तो ऐसा प्रतीत होता है कि हम एक संपूरक राष्ट्रहित के युद्ध में हैं, जो धर्म-अधर्म, अन्याय-विरोध, राष्ट्रहित-महानगरहित के बीच सच्चाई की लड़ाई है। 712 ईस्वी से हम निरंतर उस संकल्प और लड़ाई का हिस्सा रहे हैं जो धर्म, संस्कृति और मनुष्यता के बचाव की रक्षा करता रहा है। इस लड़ाई में हर नागरिक का कर्तव्य है अपनी आवाज बुलंद करना और अन्याय के सामने चुप नहीं रहना।
  • वर्तमान समय में जब कोई यह सोचता है कि “मैं तो राजनीतिक विषयों में निष्पक्ष रह रहा हूं, किसी पार्टी या संगठन के खिलाफ नहीं बोल रहा”—तो श्रीकृष्ण की शिक्षा याद रखनी चाहिए। यदि लोक हित के विषय—जैसे रामलला मंदिर, धारा 370 पुनर्जीवित करना इत्यादि पर सार्वजनिक चुप्पी बनी रहती है, तो वह चुप्पी एक प्रकार का मौन समर्थन है अधर्म को। जहां भाजपा संघ आदि संगठन स्पष्ट रूप से धर्म और राष्ट्रहित के पक्ष में खड़े हैं, वहीं अन्य राजनीतिक संगठन और नागरिक यदि इन बुनियादी मुद्दों पर मौन रहते हैं या विरोध करते हैं, तो उनका दृष्टिकोण भी अधर्म की ओर झुकता है।
  • राष्ट्रहित में खड़े रहने का मतलब है कि आप उन नीतियों, मुद्दों और विवादों के खिलाफ आवाज उठाएं जो जनहित के विरुद्ध हों। इसका मतलब यह नहीं कि आप किसी विचार से पूरी तरह सहमत हों, बल्कि इसका अर्थ यह है कि जब आपके देश पर, आपकी संस्कृति पर, आपके इतिहास पर या आपके समाज के आधारिक सिद्धांतों पर कोई चुनौती हो, तो आप उस अत्याचार के सामने चुप्पी नहीं साधते। जरूरत है, सक्रिय रूप से सोचने का, विरोध करने का और सेवा कार्य में सहभागी बनने का।
  • स्वयं को “न्यूट्रल” घोषित कर आत्मशांति की तलाश करना जितना आसान है, उसके लौटने वाले परिणाम – जैसे समाज में जल्दबाजी, निराशा, नेतृत्व की कमी – उससे कहीं भारी हैं। पहाड़ों में खींची गयी डेमोक्रेटिक सीमाएं कोई अटूट दीवार नहीं बननी चाहिए। अगर हम धर्म, संस्कृति या न्याय की रक्षा में मौन रहते हैं, तो इतिहास हमें आलोचना की दृष्टि से याद रखेगा—जिन्होंने मौन रहना चुना, जब उन्हें बोलना चाहिए था। अतः यही कहना है कि धर्म-अधर्म के बीच लड़ाई में निष्पक्ष रहने वालों को आज अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी।
  • यह संदेश कोई राजनीतिक रोट है, न ही किसी संगठन का आदेश—यह एक मानवीय, नैतिक और राष्ट्रीय चेतना का स्वर है। “जो राष्ट्रहित में सही है, उसमें आपका योगदान हो”—इस सिद्धांत पर खड़े हों। क्योंकि लड़ाई केवल जमीन और सीमाओं की नहीं, यह आत्म-संरक्षण की लड़ाई है, जो हम सभी को मिलकर लड़नी होगी। जय श्रीकृष्ण!

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News Editor- (Jyoti Parjapati)

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