Discipline dictatorship : संघ को भीतर से समझें अनुशासन तानाशाही नहीं, अनुभव पर आधारित सत्य जानें ही

-१-संघ के कार्यक्रमों में हम देखते हैं कि वहाँ एक व्यक्ति आदेश देता है ‘संघ उत्तिष्ठ’, सब लोग खड़े हो जाते हैं, ‘संघ उपविश’, सब लोग बैठ जाते हैं तो लोगों को लगता है कि संघ बड़ा ही Dictatorial organisation है। संघ में सामने एक व्यक्ति होता है, सरसंघचालक। आजकल बाहर की भाषा में उसको गलती से चीफ भी कहा जाता है। तो लोगों को लगता है कि ये चीफ हैं, इसलिए ये बोलेंगे और सभी लोग सुनेंगे और सब इनके मन से चलता है। इसलिए संघ को अंदर से आकर देखने पर आपको सब प्रकार की सच्चाई पता चलेंगी, केवल बाहर की सुनी सुनाई बातों पर मत जाइए। अंदर आकर देखिए, फिर अपनी प्रतिक्रिया दीजिये ।
-२-डॉ. हेडगेवार ने ये सारे प्रयोग पहले कर लिये थे। संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करने का तरीका क्या है? ऐसा करते-करते उसके परिणाम कैसे होंगे, क्या होंगे, यह सारा उनकी आँखों के सामने स्पष्ट था। उनकी वह प्रतिभा अलौकिक थी। उनका जीवन बड़ा गहरा था। लेकिन संघ स्थापना की घोषणा करने के अलावा उन्होंने दूसरा कुछ नहीं किया। घोषित कर दिया, आज से संपूर्ण हिंदू समाज को संगठित करनेवाला यह संघ प्रारंभ हुआ है, ऐसा बोला और बैठक समाप्त हो गई। तो फिर साथी आ गए, करना क्या है? तो साथ में बैठो और तय करो कि आगे क्या करना है। उस दिन हमारी शाखा शुरू नहीं हुई थी। यह शाखा बाद की बात है।
-३-संघ पहले बैठकों के रूप में था। तो ऐसा करेंगे कि मास में एक बार बैठक करेंगे। अब मास की बैठक का अनुभव ऐसा आया कि पहली दो-चार बैठक में लोग आए और बाद में बुलाना पड़ा। बाद में बुलाने पर भी नहीं आना शुरू हुआ। तो लोगों ने कहा कि यह मास में नहीं, साप्ताहिक करते हैं, आदत बनी रहती है। फिर दैनिक पर आ गए। कमरे के अंदर दैनिक बैठकें और चर्चा होने लगीं। लेकिन संघ में उस समय जो लोग आए, वे सब जवान लोग थे। बालक थे, किशोर थे, तरुण थे। कमानेवाले लोग तो बहुत ही कम थे। डॉ. हेडगेवार उस समय 35 साल की आयु में थे। वे संघ के एल्डर्स में एक थे। पाँच-छह एल्डर्स थे, उसमें एक डॉ. हेडगेवार थे। तो जवान लोगों ने सोचा कि ये क्या रोज आकर कमरे के अंदर बैठकर चर्चा करना, अरे जवान लोग हैं, कुछ हाथ-पैर हिलाएँगे, तो चलो शारीरिक कार्यक्रम करेंगे।
-मैदान पर कबड्डी खेलेंगे। बाहर क्या-क्या कर सकते हैं? कबड्डी खेलो, छोटे-छोटे खेल खेलो, फिर लगा कि नहीं, थोड़ी शस्त्र विद्या भी सीखो, अभी लड़ाई का समय है तो फिर अखाड़े हैं, अखाड़ों में जाओ। यह बाहर जब आना शुरू हुआ तो संघ स्थापना के तीन-साढ़े तीन महीने के बाद फिर शाखा शुरू हुई।
-४-डॉ. हेडगेवार ने नहीं कहा कि शाखा शुरू करो। उस बैठनेवाली टोली की चर्चा में से एक सहमति बनी और यह हुआ। डॉ. हेडगेवार चाहते थे कि लोग रोज इकट्ठे हों, लेकिन उन्होंने कभी ऐसा कहा नहीं। कार्यकर्ताओं के हाथ में दे दिया कि यह काम करना है, कैसे होता है, प्रयोग करो। ऐसे ही विकसित हुआ। फिर लगा कि लाठी वगैरह तो अपने यहाँ है। राज कौन कर रहा है, अंग्रेज। अंग्रेज अपने यहाँ क्या करता है परेड, अपने को भी परेड करना आना चाहिए। तो फर्स्ट वर्ल्ड वार के बाद सेना से रिटायर्ड मार्तंड जोग नाम के एक सज्जन थे, वे डॉ. हेडगेवार के मित्र थे, उन्होंने हर इतवार को परेड लेना प्रारंभ किया। परेड के लिए एक गणवेश चाहिए तो यूनिफॉर्म बनी। वो उस समय की पुलिस, मिलट्री वालों की ड्रेस जैसी होती थी, वैसी ही थी। और फिर पथ संचलन वगैरह निकलने लगे, फिर अपना बैंड भी चाहिए तो वही मिलिट्री बैंड का अनुकरण करके हमारा एक टूटा-फूटा बैंड बना। लेकिन यह सारा कार्यकर्ताओं की चर्चा में से बना।
-५-डॉ. हेडगेवार ने ऐसा नहीं कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शुरू हुआ। उन्होंने कहा संघ शुरू हुआ। और लोग जैसे शाखा में अन्य लोगों को लाने लगे, तो वे पूछने लगे कि आपका संघ कौन सा है? तो उन्होंने डॉ. साहब को पूछा कि अपने संघ का नाम क्या है? डॉ. साहब ने कहा कि तय किसने किया है? बैठो और तय करो। बैठक हुई, सोलह लोग आए, तीन नाम प्रस्तावित किए गए, चर्चा हुई, मतदान हुआ और बहुमत से पारित हुआ ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’। डॉ. हेडगेवार ने संघ स्थापना से दो वर्ष पूर्व तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल चलाया था, लेकिन उन्होंने यह नाम किसी को बताया नहीं। चर्चा में से आया।

-सामूहिक सहमति का स्वभाव डॉ. साहब का भी था और संघ का भी है। हमारे यहाँ एक बार सहमति होने के बाद फिर सबके बोलने की जरूरत नहीं रहती है। फिर भी सब बोलने लगे तो एक ही बात बोलेंगे। प्रत्येक की शैली अलग-अलग होगी। इसलिए बोलने का काम किसी एक को देते हैं।
-अनुशासन के तकाजे से, सहमति व्यक्त करने के तकाजे से ऐसा दिखता है कि एक के बोलने पर सब होता है, लेकिन ऐसा नहीं होता। एक-एक सामान्य स्वयंसेवक के विवेक से काम होता है।
-६-रोज शाखा में जाना चाहिए, ऐसा हम बताते हैं। हम सब जाते हैं। हम लोग शाखा जाते हैं कि नहीं, छोटे-से-छोटा स्वयंसेवक भी देखता है। और अगर कोई गलती हो गई तो हमको पकड़ भी सकता है। इस संबंध में डॉ मोहन रावजी भागवत अपना संस्मरण कहते हैं- “मैं स्वयं संघ का सरसंघचालक हूँ, मेरा नाम नागपुर में मोहिते सायं शाखा की सूची में है। मेरा प्रवास रहता है, इसलिए मैं वहाँ रोज नहीं होता हूँ। उस शाखा में एक छोटा नया स्वयंसेवक आता है। उस समय वह चौथी में पढ़ रहा था। बहुत दिनों के बाद मैं नागपुर पहुँचा, शाम को शाखा में गया। विकिर होने के बाद वह मेरे सामने आया। वह देखने लगा, तो मैंने पूछा कि क्या है भई ? तो उसने कहा कि आज हमारे गणशिक्षकजी ने बताया कि शाखा में रोज आना चाहिए। मैंने कहा, सही बात है। मैंने सुना है कि आप हमारी शाखा के स्वयंसेवक हैं। मैंने कहा, सही बात है। तो उसने कहा कि आप तो रोज नहीं दिखते। मैंने कहा कि भई, मेरा प्रवास होता है, तो जहाँ प्रवास होता है, वहाँ शाखा में जाता हूँ। तो वह बोला कि आप नागपुर में कितने दिन से हैं? मैंने कहा कि चार-पाँच दिन से हूँ। उसने कहा, आज पहली बार शाखा में दिखे हैं। अरे, अन्य शाखाओं में जाने का कार्यक्रम था, मुझे जाना पड़ता है तो दूसरी शाखाओं में गया। उसके बाद जब-जब मैं शाखा में जाता था, वह पूछता था कि प्रवास कहाँ-कहाँ हुआ है? शाखा कहाँ-कहाँ हुई?”
-संघ ऐसा Open संगठन है। यहाँ प्रत्येक स्वयंसेवक पूछ सकता है। प्रत्येक स्वयंसेवक विचार करता है। प्रत्यक्ष स्वयंसेवक का विचार चर्चा में आने की पद्धति है। अब लाखों स्वयंसेवक हैं। उनकी मैं अकेला नहीं सुनता हूँ, लेकिन शाखा स्तर से ऐसी व्यवस्था है। विचार आते-आते ऊपर प्रतिनिधि सभा में सहमति बनती है और जो सहमति बनती है, उसमें सब अपना-अपना विचार विलीन कर देते हैं। Most Democratic Organisation आपको देखना है तो आप संघ में आइए।
-७-यहाँ स्वयंसेवक पर किसी भी प्रकार का अंकुश नहीं है। केवल हमने जो उसको संस्कार और विवेक दिया है, वही उसको चलाता है। उसके दायरे में वह अपनी मनमानी से कुछ भी कर सकता है। उसके करने पर हमारा कुछ अंकुश नहीं होता है। ऐसी पद्धति डॉ. हेडगेवार के स्वयं के अनुभव से और चिंतन से निकला हुआ शास्त्र है। हम उनको बुलाते हैं, उनकी शारीरिक, बौद्धिक और मानसिक उन्नति हो, ऐसा प्रयास करते हैं और कुछ योग्यता आने के बाद उनको अपनी रुचि के कार्य में सहभागी होने की छूट है। कहाँ जाना है, हम नहीं बताते हैं। वे कहीं भी जा सकते हैं। जहाँ जाएँगे, वहाँ संपूर्ण समाज को अपना मानकर मात्र राष्ट्रहित की बुद्धि से वे अपना काम करें, जहाँ जाएँगे, वहाँ का अनुशासन पालन करें और इस बात पर समझौता न करें। इतनी केवल अपेक्षा रहती है। यह संघ की कार्य-पद्धति है।
-हम रोज छोटे-छोटे सरल सीधे-सादे कार्यक्रमों से संस्कार करते हैं। उस समय जो कार्यक्रम उपलब्ध थे, वे चले। नए-नए कार्यक्रम आते हैं, हम स्वीकार करते हैं। हमारा कार्यक्रम स्वीकार करने में हम पर एक बंधन रहता है। वह यह है कि संघ सब प्रकार के लोगों से चलता है, किसी एक वर्ग का संगठन नहीं है। सब प्रकार के आर्थिक वर्ग में, सब प्रकार की भाषाओं में, सब प्रकार की जाति-उपजातियों में चलनेवाला यह संगठन है। जो सब लोग कर सकते हैं ऐसा कार्यक्रम हमारा अखिल भारतीय कार्यक्रम बन जाता है।
News Editor- (Jyoti Parjapati)
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